एक सिंड्रेला ऐसी भी

सिंड्रेला की खानी बहुत-से लोग पढ़ते हैं और पढ़कर भूल जाते हैं | अपनी मार्तभाषा बंगला में सातवीं तक पढ़ी बेबी हाल्दार ने तो सिंड्रेला की कहानी नहीं पढ़ी, मगर वह खुद जीती-जागती सिंड्रेला से कम नहीं| सिंड्रेला की ज़िन्दगी एक परी ने बदल दी थी| बेबी की ज़िन्दगी को एक नई दिशा दी प्रोफ़ेसर प्रबोध कुमार ने, जो स्वयं हिंदी के उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के प्रपोत्र हैं| 

बेबी हाल्दार ने जब से होश सँभाला था, तभी से अपनी माँ और छोटे भाई-बहनों सहित स्वयं को हर छोटी-बढ़ी बात पर पिता से पिटते देखा था| पिता माँ को भी बात-बे-बात प्रताड़ित किया करते थे| 

बेबी  जब कुल जमा पाँच साल की थीं| तभी उनकी माँ घर छोड़कर हमेशा के लिए चली गई| पिता ने बिना देर करे दूसरी शादी कर ली| 

नई माँ जब से घर में आईं उनपर एक ही धुन सवार रहती थी; जैसे भी हो, जल्दी से जल्दी बेबी की शादी रचना| पिता भी माँ की इस योजना में पूरा-पूरा सहयोग देने लगे| अभी बेबी ने किशोरवय में कदम रखा ही था कि उनकी शादी उम्र में उनसे बहुत बड़े वयक्ति के साथ कर दी गई| 

परिणाम, बेबी हाल्दार किशोरवय में ही अपने पहले बच्चे की माँ बन गईं और बीस वर्ष की उम्र तक आते-आते तीन बच्चों
'की। उनकी शादीशुदा ज़िंदगी में उनकी माँ का इतिहास ही दोहराया गया। वह भी ज़्यादा बर्बरता के साथ | उनका पति भी कभी
उन्हें तो कभी बच्चों को बेवजह पीटता था।

जब बेबी की सहनशक्ति जवाब दे गई तो एक दिन अपने तीनों बच्चों सहित दिल्‍ली आनेवाली ट्रेन में बैठ गईं। दिल्‍ली
पहुँचकर अपना और अपने बच्चों का पेट कैसे पालेंगी, कहाँ आश्रय पाएँगी, यह तय नहीं था। दिल्ली में उनका कोई परिचित
भी नहीं था। उस समय वे एक ही धुरी पर सोच रही थीं कि जैसे भी हो, इस यातना से मुक्ति पाने के लिए कहीं दूर चले जाना है |  

दिल्लीवालों की नज़र में बेबी हाल्दार नौकरानी बनने-भर की योग्यता रखती थीं। सो वही काम मिला। बेबी अपनी

बदकिस्मती के लिए दिल्लीवालों को नहीं, बल्कि अशिक्षा को दोषी मानती थीं। वे जिस घर में भी काम करतीं, कड़ी मेहनत
करतीं।

चाह सिर्फ़ इतनी कि उनका श्रम उन्हें और उनके बच्चों को दो वक्‍त की रोटी, रहने का आसरा और बच्चों की पढ़ाई का
इंतज़ाम करा दे। बेबी की यह इच्छा उनके मालिकों के दिल से कहीं बड़ी निकली। इसीलिए उन्हें अपनी इस इच्छा के
अधूरेपन के साथ कई घरों में भटकना पड़ा।

बेबी हाल्दार की यही तलाश उन्हें सन १999 में प्रोफ़ेसर प्रबोध कुमार के दरवाज़े तक ले आईं। इस घर में कदम रखने के
दिन से ही बेबी को ऐसा लगता था जैसे इस घर की दीवारें पत्थर की नहीं, किताबों की बनी हैं।

एक दिन वे रैक साफ़ करते समय एक किताब के पन्ने पलटती रँगे हाथों पकड़ी गईं। उन्हें किताबों को उलटते-पलटते
देखा भी तो किसने ? स्वयं घर के मालिक प्रोफ़ेसर प्रबोध कुमार ने। उन्होंने बेबी को इसकी सज़ा देने की घोषणा की और सज्ञा
के तौर पर बेबी के हाथों में बाँग्ला भाषा के कई चर्चित लेखकों की किताबें थमा दीं। बेबी से कहा गया कि फ़ुरसत में इन
किताबों को पढ़े और पढ़ने के बाद प्रोफ़ेसर साहब को बताए कि कौन-सी किताब कैसी लगी।

यह सिलसिला महीनों चला। फिर एक दिन प्रोफ़ेसर प्रबोध ने बेबी के हाथों में एक कॉपी और पेंसिल थमाकर कहा,
“'औरों को बहुत पढ़ चुकीं। अब इस कॉपी में अपनी कहानी लिखो ! याद रहे, तुम जो लिखो, वह वैसा न हो जैसा तुमने अब
तक पढ़ा है। जो भी लिखो, अपने ढंग से लिखना, न कि किसी और के ढंग से।'”

बेबी के लिए पिछली ज़िंदगी को याद करना और उसे लिखना आसान नहीं था। मगर जब हाथों में पेंसिल थामी तो
आँसुओं की धार के बीच सोते-जागते, उठते-बैठते, वह सब कुछ लिख डाला जो तब तक के जीवन में जिया और भोगा था।
लिखने के दौरान न वाक्य विन्यास पर कोई ध्यान दिया, न शब्दालंकारों पर। शायद बेबी तब यह जानती भी नहीं थी कि लेखन
के औज्ञार क्‍या हैं और उन्हें कैसे या कहाँ प्रयोग में लाना चाहिए।

बेबी हाल्दार ने अपने लिखे पन्‍नों को 'आलो-अंधारी ' नाम दिया। बेबी की लिखी रचना को पढ़कर प्रो. प्रबोध कुमार के
आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा। उन्होंने बेबी का माथा चूमकर आशीर्वाद दिया और उसके दूवारा लिखी गई रचना के
संपादन-प्रकाशन का बीड़ा उठाया। बेबी ने शायद अपनी किताब का नाम 'आलो-अंधारी' (रोशनी और अँधेरा) इसीलिए रखा
था, क्योंकि उनकी यादों में अभाव और प्रताड़ना भरी अनेक रातें ही जमा थीं।

प्रोफ़ेसर कुमार ने परिश्रम पूर्वक उसका संपादन करने के बाद “आलो-अंधारी' शीर्षक से ही उसे “जुबान प्रकाशन' से
पुस्तक रूप में प्रकाशित करवा दिया।

बेबी हाल्दार दूवारा मूलतः बाँग्ला में लिखी गई 'आलो-अंधारी' का उजियारा दुनिया की नज़र में तब आया जब इसका
अंग्रेज़ी अनुवाद पेंग्विन से 'अ लाइफ़ लैस ऑर्डिनरी ' के नाम से प्रकाशित होकर सामने आया।

कल तक की गुमनाम हस्ती से 'बेस्ट-सेलर' किताब की लेखिका बनीं बेबी हाल्दार के बारे में अब पूरी दुनिया जानना
चाहती थी। न्यूयार्क टाइम्स, इंटरनेशनल हेराल्ड, ट्रिब्यून और क्रिश्चन मॉनिटर ने उनकी कहानी को छापा। बेबी ने जयपुर में
हुए 'वीमैन हाँगकाँग इंटरनेशनल लिटरेरी फ़ेस्टिवल' में अपनी किताब के साथ भाग लिया। लंदन में फ़िल्म मेकिंग का कोर्स
कर रहे एक भारतीय छात्र ने बेबी पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई। इससे बेबी पर अनेक देशी-विदेशी निर्माता-निर्देशकों की नज़र गई। वे सब उनकी कहानी पर फ़िल्म बनाना चाहते हैं।
आज बेबी हाल्दार के पास सब कुछ है, मगर वह आज भी अपने “तातुश' (पोलिश भाषा में पिता) यानी प्रो. प्रबोध कुमार
के साथ ही रहती हैं। आज भी प्रोफ़ेसर कुमार के घर की सार-सँभाल बेबी हाल्दार के हाथों में है। प्रो. साहब का पूरा परिवार
बेबी को अपने परिवार का हिस्सा मानता है।

बेबी के तीनों बच्चे सुबोध, तापस और पिया अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे हैं। बेबी अपनी दूसरी किताब पर काम लगभग पूरा
कर चुकी हैं। अब वे अपनी नन्ही बेटी पिया से अंग्रेज़ी पढ़ रही हैं, ताकि विदेशी पत्रकारों के सवालों का जवाब बेहिचक दे
सकें। फिर अब उन्हें अपने बच्चों के सपनों के साथ-साथ अपने सपने भी तो पूरे करने हैं, जो जारी रहेंगे, जिंदगी के साथ भी,
ज़िंदगी के बाद भी।

                                                    -दामिनी 



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