शह में मात
गाँव का एक बूढ़ा चौधरी लकड़ियों से भरी गाड़ी लेकर करीब के नगर में बेचने के लिए आया। चौधरी की गाड़ी को नज़र
भरकर देखने के बाद एक सेठ ने पूछा,
““बाबा, गाड़ी का क्या लेगा ?”
चौधरी ने कहा, “एक ही दाम बता दूँ? पूरे पाँच रुपए लूँगा। कमी-बेशी मत करना।"
सेठ ने कहा, “बाबा, तूने कहा है तो गाड़ी के पूरे पाँच ही दूँगा। चल, जल्दी कर ! मेरी हवेली तक तो चल।''
सेठ के साथ चौधरी उसकी हवेली गया। वहाँ पहुँचकर पहले गाड़ी में जुते बैलों की गरदन से गाड़ी का जुआ हटाया। बैलों
को एक तरफ़ बाँधा, फिर गाड़ी में रखी तमाम लकड़ियाँ निकालकर आँगन में रख दीं। सेठ ने खुशी-खुशी पाँच रुपए दिए।
चौधरी अपने बैलों को फिर से गाड़ी में जोतने लगा तो सेठ गरजकर बोला,
““खबरदार, गाड़ी और बैलों को हाथ मत
लगाना! गाड़ी और बैलों की मैंने पूरी कीमत चुकाई है। अब ये मेरे हैं। मैंने तुझसे गाड़ी का मोल पूछा था या लकड़ियों का ?
ज़रा याद कर, मैंने कहा था कि “बाबा, गाड़ी का क्या लेगा?” कहा था कि नहीं ? तूने पाँच रुपए माँगे। पाँच से कम दिए हों तो
बता? गाड़ी का मोल करते वक्त बैल जुते हुए थे कि नहीं ? सिर में सफ़ेदी आ चुकी है इसलिए सच बोलना! एक दिन सबको
भगवान को मुँह दिखाना है।'!
चौधरी को काटो तो खून नहीं! अटकते-अटकते बोला, “बैल जुते हुए ज़रूर थे, पर सेठ जी, मैंने तो लकड़ियों का दाम
बताया था। गाड़ी-बैल कहीं पाँच रुपए में आते हैं !'”
सेठ ने तपाक से कहा, “पर मैंने तो गाड़ी का दाम पूछा था और गाड़ी के दाम देने की बात की थी। गाड़ी-बैल पाँच रुपए
में आते हैं कि नहीं, यह तू जाने। आदमी की ज़्बान एक होती है कि दो? अब चुपचाप चलता बन, नहीं तो धक्के मारकर
निकलवा दूँगा। मेरे यहाँ झगड़ा-टंटा नहीं चलेगा।'”
चौधरी बूढ़ा था। अधिक चतुर नहीं था। गाड़ी छोड़ते हुए कलेजे पर आरा-सा चलता था। सेठ के आगे हाथ जोड़े,
गिड़गिड़ाया, उसके पाँव में पगड़ी रखी, रोते हुए बोला,
““मेंरे समझने में भूल हो गई। मैंने तो लकड़ियों का मोल बताया था।
आप बड़े हैं, गरीब पर दया करें।'”
पर सेठ के कान पर जूँ भी नहीं रेंगी। अपनी बात पर अड़ा रहा। चौधरी को समझाया कि दुनिया में ज़बान से बढ़कर कुछ
भी नहीं है। ज़्बान से ही बरकत होती है। ज़बान से पलट जाए वह आदमी कैसा! ये तो सिर्फ़ गाड़ी-बैल हैं, ज़बान से तो
लाखों के वारे-न्यारे होते हैं। अगर तेरी तरह सब पल-पल में ज़बान पलटने लगे तो दुनिया का काम कैसे चलेगा ?
बेचारा चौधरी पाँव घिसटता हुआ हवेली से निकला और अपने गाँव आया।
घर में पहुँचते ही बड़े बेटे ने पूछा, “बाबा, बैलगाड़ी कहाँ है? रास्ते में खराब तो नहीं हो गई ? बहुत तकलीफ़ पाई
होगी।'!
बाबा ने खीझकर कहा, “बैलगाड़ी तो ठिकाने लगी। तुम में दम हो तो कुछ करो। उस चतुर सुजान सेठ के आगे मेरी एक
न चली। तकलीफ़ की क्या पूछते हो ! ठेठ शहर से पाँव रगड़ता आ रहा हूँ।'”
चौधरी ने अपने बेटों को ब्योरेबार पूरी बात बताई। कहा,
“'मेरे साथ तो ऐसी हुई। सेठ के आगे खूब रोया। गिड़गिड़ाया।
पाँव में पगड़ी रखी। पर उसने तो एक ही आँकड़ी पकड़ ली कि आदमी की ज्ञबान एक होती है। ज़बान से लाखों के वारे-
न्यारे होते हैं। अगर आदमी यों ज़बान बदलने लगा तो दुनिया कैसे चलेगी! मुझे तो बोलने ही नहीं दिया !'”
चौधरी के चार जवान बेटे थे। सुनकर उनकी आँखों में खून उतर आया। बड़ेवाले तीन बेटों ने सुझाया--चलो, हमें उस सेठ
की हवेली दिखा दो। हम उसकी ईंट से ईंट बजा देंगे। उसकी इतनी हिम्मत कि यों राह चलते गाड़ी-बैल रख लिए!
'पर सबसे छोटा बेटा कुछ और ही सोच रहा था। वह बोला,
““मैं अकेला ही उससे निपट लूँगा, तुम्हारी बारी नहीं आएगी।
कल मुझे दूसरी गाड़ी में लकड़ियाँ ले जाने दो। सेठ की ज्ञबान से ही उसे बाँधूँगा। उसी का तराजू, उसी के बाट और उसी के
भाव से उसका हिसाब चुकता करूँगा।'!
चौधरी का चौथा बेटा बहुत होशियार था। सब जानते थे कि यह जो कहता है करके दिखाता है।
दूसरे दिन वह घड़ी-रात रहते घर से रवाना हुआ और नगर के उसी चौक में गाड़ी खड़ी की। पिता ने उसे सेठ का हुलिया
अच्छी तरह समझा दिया था। कल का दाँव सेठ के लिए बहुत मुफ़ीद रहा था। उसकी सफलता से फूला वह आज फिर वहीं
आया। लकड़ियों से भरी गाड़ी देखकर उसकी बाँछें खिल गईं। पास जाकर पूछा, “चौधरी, गाड़ी बिकाऊ है क्या?!
चौधरी का बेटा तुरंत समझ गया कि यह वही सेठ है। इसीलिए उसने कहा, “सेठ जी, यह भी कोई पूछनेवाली बात है।
बेचने के लिए ही तो आया हूँ!”
सेठ को तो चाट लगी हुई थी। 'गाड़ी' शब्द पर ज़ोर देते हुए पूछा,
““तो एक ही कीमत बता दे, इस “गाड़ी ' का क्या लेगा ?
मुझसे मोल-भाववाली बात मत करना।””
गाड़ीवाले ने भी कहा,
“'सेठ जी, फ़िजूल मोल-भाव में क्या रखा है! सामने आदमी देखा जाता है। एक ही बात बता दूँ कि
इस गाड़ी के दो मुट्ठी टके लूँगा। आपको जँचते हों तो बोलो।'”
सेठ को लगा कि यह तो कलवाले बाबा से भी भोला है। मुट्ठी का क्या, एक टका बंद कर लें; और दो भी। बंद मुट्ठी का
तो खोलने से पता चलता है। आज यह गावदी खूब मिला!
फिर ऊपरी मन से बोला, “गाड़ी का दाम तो तूने ज़्यादा बताया, पर अब राजा कर्ण की बेला कौन झिक-झिक करे! चल
मेरी हवेली, इस गाड़ी के दो मुट्ठी टके ही दूँगा।'”
चौधरी के बेटे ने सोचा--अब इसे ज़िंदगी भर के लिए लकड़ियाँ खरीदना न भुला दिया तो अपना यह मुँह लेकर घर न
जाऊँगा।
हवेली पहुँचते ही सेठ ने कहा,
““बोहनी के बखत पहले दाम पल्ले बाँध ले, फिर गाड़ी खोलना।'”
यह कहकर सेठ त्वरित गति से हवेली के भीतर गया और दोनों मुट्ठियों में एक-एक टका बंद करके चौधरी के बेटे के
पास आकर बोला, “ले अपने दाम, फिर दूसरी सटर-पटर करना।””
सेठ टके देने के लिए मुट्ठियाँ खोल ही रहा था कि गाड़ीवाले ने झट उसका हाथ पकड़ लिया। फिर अपनी कमर में खुँसा
पैना हँसिया निकालकर बोला, “सेठ जी, मुट्ठियाँ खोलो मत, ये तो अब साथ ही जाएँगी। आज आया है ऊँट पहाड़ के
नीचे!”
सेठ हैरान होकर बोला,
““यह क्या बक रहा है 2?"
चौधरी का लड़का बोला,
““बक नहीं रहा हूँ सेठ, जो सौदा ठहरा है वही बता रहा हूँ। तुम्हारे शहर में जब लकड़ियों के
साथ गाड़ी-बैल बिकते हैं तो टकों के साथ मुट्ठियाँ भी जाएँगी।'”
यह कहकर उसने सेठ की कलाई पर हँसिए का हलका-सा रगड़ा दिया।
सेठ ज़ोर से चिल्लाया, “छोड़ दे चौधरी, मुझ पर दया कर। मुझसे गलती हो गई। कल के गाड़ी-बैल भी वापस ले जा।
गाड़ी-बैल का भला मैं क्या करूँगा! मैंने तो मज्ञाक किया था।”!
चौधरी उसकी कलाई मरोड़ते हुए बोला, “मेरा पिता कल गिड़गिड़ाया, पाँव में पगड़ी रखी, पर तुम नहीं पसीजे। अब ज्ञबान
'पलटते हो ! ज्ञबान से तो लाखों का लेन-देन होता है। दो मुट्ठी टके की बात पक्की हुई थी कि नहीं, बोलो ?”
'पलभर में सेठ को सारा नफ़ा-नुकसान समझ में आ गया। हकलाते हुए बोला,
““ज़बान तो की थी, पर टकों के साथ
मुट्ठियाँ कटने का मुझे ध्यान नहीं रहा। अब जैसा तू कहे, करने को तैयार हूँ। मेरा हाथ छोड़ दे।"'
चौधरी उसकी नकल उतारते हुए बोला,
“' ध्यान नहीं रहा! तुम्हें क्यों ध्यान रहने लगा! बूढ़े आदमी से गाड़ी-बैल छीनते
वक्त पूरा ध्यान था!'' सेठ की करतूत के लिए उसे उलाहना देते-देते उसने हँसिए का एक रगड़ा और दिया।
सेठ देवी के बकरे की तरह काँपते हुए बोला, “गाड़ी के साथ दंड के पाँच सौ रुपए भी दूँगा, मेरा हाथ छोड़ दे !'”
उसे काँपते देखकर चौधरी के बेटे को हँसी आ गई। वह सेठ का उपहास करते हुए बोला,
““इसी हिम्मत के ज़ोर पर बेचारे
भोले-भाले लोगों को ठगते हो ? चलो, मेरे पाँव में पगड़ी रखकर सात बार नाक रगड़ो !'”
सिर सलामत रहना चाहिए, पगड़ी पाँव में रखने से क्या बिगड़ता है! रगड़ने से नाक घिसती थोड़ेई है! सेठ ने मन ही मन
स्वयं को समझाया और तुरंत पगड़ी उसके पाँवों में रख दी। फिर गिनकर सात बार ज़मीन पर नाक रगड़ी।
तब चौधरी-सुत ने कहा, “अब चुपचाप पाँच सौ रुपए लाओ और कल जो गाड़ी-बैल हड़प लिए थे, वे भी वापस करो।
अगर इसमें चीं-चपड़ की तो हँसिए से आँतें निकाल दूँगा।'”
सेठ तो फिर ऐसा मौन हुआ जैसे मुँह में गुड़ दिया हुआ हो। तुरंत पाँच सौ रुपए गिन दिए और पिछले दिन उसके पिता से
हथियाए गाड़ी-बैल भी लौटा दिए।
चौधरी का समझदार और छोटा बेटा दोनों बैलगाड़ियों के साथ अपने गाँव लौट आया।
-- विजयदान देथा
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